√●वैदिक मंत्रों में सुख्यात तथा सर्वाधिक चर्चित मंत्र श्रीगायत्री मंत्र है जिसके मंत्रद्रष्टा ॠषि विश्वामित्र बताये जाते हैं । मान्यता है कि वैदिक मंत्रों का अंतर्ज्ञान अलग-अलग ॠषियों को समय के साथ होता रहा और कालांतर में मुनि व्यास ने उन्हें तीन वेदों के रूप में संकलित एवं लिपिबद्ध किया । उक्त मंत्र २४ मात्राओं के गायत्री छन्द में निबद्ध है और शायद इसीलिए इसे गायत्री मंत्र नाम दिया गया है ।
√●यह एक रोचक तथ्य है कि श्रीगायत्री मंत्र का उल्लेख तीनों प्रमुख वेदों में है और इस प्रकार लिपिबद्ध किया गया है-
"तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।।"
√●(१) यह ॠग्वेद-संहिता के मण्डल ३, सूक्त ६२ में १०वां मंत्र (ॠचा) है ।
√●(२) यजुर्वेद-संहिता के अध्याय ३ में यह ३५वें मंत्र (यजुः) के रूप में उल्लिखित है और इसका पुनरुल्लेख अध्याय २२ में ९वें तथा अध्याय २२ में २रे मंत्र के तौर पर भी हुआ है ।
√(३) सामवेद का यह १४६२वां (अध्याय ३, खण्ड ४, मंत्र ३) मंत्र (साम) है ।
√●माना जाता है कि उक्त तीनों वेदों का संबंध अध्यात्म तथा दर्शन से रहा है । ॠग्वेद को पारलौकिक ज्ञान का भंडार माना जाता है जब कि यजुर्वेद यज्ञादि अनुष्ठानों को संपन्न करने में प्रयुक्त मंत्रों का संग्रह है । धार्मिक अनुष्ठानों में गायन में प्रयुक्त मंत्रों का संकलन सामवेद क रूप में जाना जाता है । अथर्ववेद इन तीनों से हटकर है और इसमें लौकिक उपयोग की बातें संग्रहीत हैं, जैसे आयुर्विज्ञान, आयुधविज्ञान, अर्थशास्त्र इत्यादि से संबंधित जानकारी ।
√●ॠग्वेद-संहिता के श्रीमद्सायणाचार्यरचित भाष्य और यजुर्वेद-संहिता के श्रीमद्उमटाचार्य तथा श्रीमद्महीधर द्वारा रचित भाष्यों के अनुसार उक्त मंत्र की व्याख्या यूं की जा सकती हैः-
√●सविता (सवितृ) उस परमात्मा का संबोधन है जिससे समस्त सृष्टि का प्रसव हुआ है अर्थात् जिससे मूर्त एवं अमूर्त सभी कुछ उत्पन्न हुआ है । सभी पापों का भर्जन करने वाली उसकी सामर्थ्य या शक्ति को भर्ग कहा गया है । मंत्र में निहित भाव है- “उस सविता देवता के वरण किये जाने योग्य अर्थात् प्रार्थनीय भर्ग का हम ध्यान करें । वह सविता या उसका भर्ग जो हमारी बुद्धियों को (सत्कर्मों के प्रति) प्रेरित करता है ।” (तस्य सवितुः देवस्य वरेण्यं भर्गः (वयम्) धीमहि यः नः धियः प्रचोदयात् ।)
√●यहां इतना और कहना समीचीन होगा कि यजुर्वेद-संहिता के अध्याय ३६ के मंत्र ३ का पाठ इस प्रकार है:-
"भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।।"
√●यह पहले उल्लिखित मंत्र से इस बात में भिन्न है कि उसके आरंभिक वाक्यांश ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ है । यह पदसमूह दरअसल श्रीगायत्री मंत्र का अनिवार्य भाग नहीं है । किंतु व्यवहार में लोग उपर्युक्त स्वरूप में ही इस मंत्र को जानते आ रहे हैं । आरंभ के ये तीन शब्द ‘भूः’, ‘भुवः’ एवं ‘स्वः’ व्याहृतियां कही जाती हैं और शाब्दिक दृष्टि से ये क्रमशः पृथ्वीलोक, अंतरिक्षलोक तथा स्वर्गलोक को इंगित करते हैं । वैदिक मान्यतानुसार पृथ्वीलोक तथा स्वर्गलोक के मध्य में अंतरिक्षलोक है ।
√●श्रीगायत्री मंत्र के जाप में मंत्र के आरंभ में ओंकार शब्द तथा उक्त तीनों व्याहृतियों अर्थात् ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ के उच्चारण की प्रथा है । ‘ॐ’ परमात्मा का द्योतक है और ‘भूर्भुवः स्वः’ उसकी संपूर्ण सृष्टि का प्रतिनिधित्व करता है । इनके उच्चारण द्वारा कदाचित् परमात्मा और उसकी सृष्टि को संबोधित किया जाता है, अथवा उन पर घ्यान केंद्रित किया जाता है ।